खेल किस्सा भी देखो इस जलावन का।
कभी हिस्सा था ये हर इक आंगन का।।
नजदीकिया होती थी रिश्तों में इतनी।
लुफ्त उठाते थे सभी स्नेह और लालन का।।
आधुनिकता में खो रही करीबियां अब तो।
साथ छूटता जा रहा ममता के दामन का।।
बदल रहा है आईना तस्वीर भी बदल रही।
नकाब में धूमिल हो जाता रुप रा-वन का।।
बरसते सभी की आंँखों से यहाँ मेघ देखो।
बाट नहीं निहारता अब ये दर्द सावन का।।
धीरे-धीरे निगलती जा रही जिंदगी सब की।
है सबको इंतजार शायद किसी ता-रन का।।
जाने कहां जा कर रुकेगा ये सब कुछ नेह।
वक्त है शायद फिर से कृष्ण के वाचन का।।
पूनम शर्मा स्नेहिल